Deepak Tiwari
2 min readMar 11, 2023

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My Poem is an Apostrophe dedicated to an earthen oil lamp called as “दीपक” or ‘Deepak’ . It is a highly spiritual writing that directly resonates to the struggles of Man within himself by equating his personality to a creation by the God Head in similar tone to an Oil Lamp which throws it brightness around during night when no other source of light is present. In other words you are a manifestation.

हे प्रकाश के लघु श्रोत, तेरा तन है माटी स्वरूप।

तेरी बाती, जीवन राही, रहता जिसमे है परम रूप।

तुम दिव्य अखंड आलोक अंश, कृशानु तन परब्रह्म वंश।

जग व्याप्त तम के विनाश रूप, धारण करते हो राग विद्रूप।

हे परहित सलिल भाव जननी, आखिर क्यों इतनी विषम करनी।

गंभीर, शांत, प्रदीप्तमान, हिल उठा मुझे देख अकस्मात ।

मन द्वार पर दस्तक हुई, ज्ञान चांदनी पुलकित हुई ।

कहने लगा मुझसे प्रदीप,

“क्यों है भला भ्रम धाम मन ,करनी मेरी निज हित नहीं,

है यही संतोष धनार्जन।

हे मनुष्य, परब्रह्म धाम, है सृजनता का श्रोत तू ।

जलकर लगन की आंच में, कर अस्तित्व को विख्यात ।

काम का लघु अंश ही, है पतन का चिन्ह रे ।

देता विषय आनंद ही, सम सांझ की लाली तरह ।

सामने जिसके खडी है, अंधकार की कालिमा। ”

सुनकर हर्षित हुआ मन, मिला एक जीवन दर्शन।

जाना उद्देश्य इस जीवन का, मिट गई सब अज्ञानता।

रहा देखता बड़ी देर तक, उसकी उज्जवल सुंदर आभा,

मानो जोड़ रहा था उससे, निज अस्तित्व से सामानता।

फिर सोचा मैंने लक्ष्य कठिन, है नहीं पार पाना आसान,

तो कैसे ले जाऊँ अपने को, इस पथ पर कर्तव्य महान।

सुनकर मेरे वाक्य सामान्य, फिर बोला मुझे जान अंजान।

“ रे दीप सच पहचान तू, है नहीं विजय आसान यूं।

बनना पड़ेगा तुझको स्वयं, एक साधक लक्ष्य साध्य का,

उद्देश्य जिसका हो कर्तव्य, और साधना समर्पण बने,

श्री प्रभु के पद कमलों में।

तब होगी वह साधना, स्वयं भक्ति स्वरूप ही ।

और होगी इच्छा आरोहन की, अवतरण का अनुग्रह नहीं।

लक्ष्य के साधक कभी, थकते नहीं हैं मार्ग में ।

है साध्य ही सर्वोपरी, मनसा दृढ़ यही मन में।

चलते चले ही जाते वे, झेलते हर चोट को ।

मार्ग खुद ही बना लेते, काट कर पहाड़ को।

पर राह कठिन है लक्ष्य विषम, होता कभी अगर निराश मन।

तब साध्य की प्रोत्साहिका, करती आकर मार्ग प्रशस्त।

देती ज्ञान अनुभूतियाँ, ठंडे पड जाते घाव समस्त।

तब झेल ली हर चोट जाती, होकर कठिन साधना परस्त।

आत्मा तन में जल उठती, होता दुख के सूर्य का अस्त ॥ ”

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